Thursday, February 8, 2018

जाने कब समझ आ गई...

लगता कुछ अध कच्चा पका सा
विचारों में यूँ फ़ँसा सा
उड़ान सी नई सोच लिए
मील का पत्थर हुए।
रोज़ आंखों में भोर लिए
चलता वह...
जाने तलाश किसकी...
तराशता कुछ अद्बुने सपने
पिरोता उन्हें,
खयालों के मुहिम तार में...
यकीन और यकीन में तब्दील हुआ जाता
जब सवेरे रोज़...
आंखों में भोर पाया जाता...
कुछ अलग कर गुजरने की उधेड़बुन,
जाने कब सीखा गई कोई नई धुन
तिनका तिनका समेटा,
सिरफ एक रैन के लिए
सौरभ की कलम से...
बस यूँ ही
जिन्दगी फिर कुछ सीखा गई
जाने कब समझ आ गई...












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